Monday, April 26, 2010

कोई मेरी जगह होता तो मर गया होता |

ऐसी तन्हाई कि साये से डर गया होता,

कोई मेरी जगह होता तो मर गया होता |


चोखट पे मेरी शाम से बैठे है करज़दार,

शब् बिताने को भला कैसे घर गया होता |


इस दौर में इमान के मिलते जो खरीदार,

इतना बेबस हूँ ये सोदा भी कर गया होता |


बक्शे जो जाते उसकी सिफारिश पे गुनहगार,

हँसके सज़दा मैं बुतों को भी कर गया होता |


इतनी सी दुआ मांगते है इश्क के बीमार,

मेरा भी गम तेरी आँखों में भर गया होता |


न फिर मुझे शराबी कहते मेरे सब यार,

सुरूर तेरा जो सर से उतर गया होता |

Sunday, March 21, 2010

तेरी याद में सिमट कर

तेरी याद में सिमट कर पहचान खोके जीना,
थी ख्वाहिश-ए-सुखनवर गुमनाम होके जीना |

सोचो के दिल के हाथों मजबूर कितने होंगे,
वरना किसे मंजूर था बदनाम होके जीना |

इन्तहा-ए-बेहयाई के अब रास आ रहा है,
अपनी ही आदतों से परेशान होके जीना |

इक दर्द है दिल तो दुनिया भी हज़ार गम है,
आंसा नहीं जहां में इंसान होके जीना |

सफर के हादसों से जो बच गए थे "इफ्त",
अब जान ले रहा है नाकाम होके जीना |


"इफ्त"

Monday, March 1, 2010

इब्तिदा - ए - गज़ल

" हालत - ए- इफ्त कागज़ पे उतारू कैसे,
इक बोझ सा दिल पे है, ... क्या कहू, ... कैसे लिखू !"