तेरी याद में सिमट कर पहचान खोके जीना,
थी ख्वाहिश-ए-सुखनवर गुमनाम होके जीना |
सोचो के दिल के हाथों मजबूर कितने होंगे,
वरना किसे मंजूर था बदनाम होके जीना |
इन्तहा-ए-बेहयाई के अब रास आ रहा है,
अपनी ही आदतों से परेशान होके जीना |
इक दर्द है दिल तो दुनिया भी हज़ार गम है,
आंसा नहीं जहां में इंसान होके जीना |
सफर के हादसों से जो बच गए थे "इफ्त",
अब जान ले रहा है नाकाम होके जीना |
"इफ्त"
Sunday, March 21, 2010
Monday, March 1, 2010
इब्तिदा - ए - गज़ल
" हालत - ए- इफ्त कागज़ पे उतारू कैसे,
इक बोझ सा दिल पे है, ... क्या कहू, ... कैसे लिखू !"
इक बोझ सा दिल पे है, ... क्या कहू, ... कैसे लिखू !"
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